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गीता में भगवान ने कहा है - '' जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मेरी कोर्इ शकित इस धरा-धाम पर अवतार लेकर भक्तों के दु:ख दूर करती है और धर्म की स्थापना करती है।'' भक्त-भय-भंजन, मुनि-मन रंजन अंजनीकुमार बालाजी का घाटा मेंहदीपुर में प्रादुर्भाव इसी उददेंश्य से हुआ है। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम ने परम प्रिय भक्त शिरोमणि पवनकुमार की सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें यह वरदान दिया - '' हे पवनपुत्र ! कलियुग में तुम्हारी प्रधानदेव के रूप में पूजा होगी।'' घाटा मेंहदीपुर में भगवान महावीर बजरंग बली का प्रादुर्भाव वास्तव में इस युग का चमत्कार है।
राजस्थान राज्य के दो जिलों (सवार्इ माधोपुर व दौसा) में विभक्त घाटा मेंहदीपुर स्थान बड़ी लाइन के बादीकुर्इ स्टेशन से जो कि दिल्ली, जयपुर, अजमेर, अहमदाबाद लाइन पर है, 24 मील की दूरी पर सिथत है। इसी प्रकार बड़ी लाइन के हिंडोन स्टेशन से भी यहा के लिये बसें मिलती हैं। अब तो आगरा, मथुरा, वृंदावन, अलीगढ़ आदि से सीधी बसें जो जयपुर जाती हैं बालाजी के मोड़ पर रूकती हैं। फ्रंटीयर मेल से महावीरजी स्टेशन पर उतर कर भी हिंडोन होकर बस द्वारा बालाजी पहुंचा जा सकता है। हिंडोन सिटी स्टेशन पशिचम रेलवे की बड़ी लाइन पर बयाना और महावीरजी स्टेशनों के बीच दिल्ली, मथुरा, कोटा, रतलाम, बड़ौदा, मुंबर्इ लाइन पर सिथत है। हिंडोन से सवा घण्टे का समय बालाजी तक बस द्वारा लगता है। यह स्थान दो पहाडि़यों के बीच बसा हुआ बहुत आकर्षक दिखार्इ पड़ता है। यहा की शुद्ध जलवायु और पवित्र वातावरण मन को बहुत आनंद प्रदान करता है। यहा नगर-जीवन की रचनाए भी देखने को मिलेंगी।
यहा तीन देवों की प्रधानता है- श्री बालाजी महाराज, श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल (भैरव)। यह तीन देव यहा आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा-पूजा कर चुके हैं और अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विधमान हैं। सर्व श्री गणेशपुरी जी महाराज (भूतपूर्व सेवक) श्री किशोरपुरीजी महाराज (वर्तमान सेवक)। यहा के उत्थान का युग श्री गणेशपुरी जी महाराज के समय से प्रारंभ हुआ और अब दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रधान मंदिर का निर्माण इन्हीं के समय में हुआ। सभी धर्मशालाए इन्हीं के समय में बनीं। इस प्रकार इनका सेवाकाल श्री बालाजी घाटा मेंहदीपुर के इतिहास का स्वर्ण युग कहलाएगा।
प्रारंभ में यहा घोर बीहड़ जंगल था। घनी झाडि़यों में शेर-चीते, बघेरा आदि जंगली जानवर पड़े रहते थे। चोर-डाकुओं का भी भय था। श्री महंतजी महाराज के पूर्वजों को जिनका नाम अज्ञात है, स्वप्न हुआ और स्वप्न की अवस्था में ही वे उठ कर चल दिए। उन्हें पता नहीं था कि वे कहा जा रहे हैं और इसी दशा में उन्होंने एक बड़ी विचित्र लीला देखी। एक ओर से हजारों दीपक चलते आ रहे हैं। हाथी-घोड़ों की आवाजें आ रही हैं और एक बहुत बड़ी फौज चली आ रही हे। उस फौज ने श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की तीन प्रदक्षिणाएं कीं और फौज के प्रधान ने नीचे उतर कर श्री महाराज की मूर्ति को साष्टाग प्रणाम किया तथा जिस रास्ते से वे आये थे उसी रास्ते से चले गये। गोसार्इ जी महाराज चकित होकर यह सब देख रहे थे। उन्हें कुछ डर सा लगा और वे वापिस अपने गाव चले गए किन्तु नींद नहीं आर्इ और बार-बार उसी विषय पर विचार करते हुए उनकी जैसे ही आखें लगी उन्हें स्वप्न में तीन मूर्तिया, उनके मनिदर और विशाल वैभव दिखार्इ पड़ा और उनके कानों में यह आवाज आर्इ - ''उठो, मेरी सेवा का भार ग्रहण करों। मैं अपनी लीलाओं का विस्तार करूगा।'' यह बात कौन कह रहा था, कोर्इ दिखार्इ नहीं पड़ा। गोसार्इ जी ने एक बार भी इस पर ध्यान नहीं दिया। अन्त में श्री हनुमान जी महाराज ने इस बार स्वयं उन्हें दर्शन दिए और पूजा का आग्रह किया।
दूसरे दिन गोसार्इ जी महाराज उस मूर्ति के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चारों ओर से घंटा-घडि़याल और नगाड़ों की आवाज आ रही है किन्तु दिखार्इ कुछ नहीं दिया। इसके बाद श्री गोसार्इ जी ने आस-पास के लोग इकटठे किए और सारी बातें उन्हें बतार्इ। उन लोगों ने मिल कर श्रीमहाराज की एक छोटी सी तिवारी बना दी और यदा-कदा भोग प्रसाद की व्यवस्था कर दी। कर्इ एक चमत्कार भी श्री महाराज ने दिखाए किंतु यह बढ़ती हुर्इ कला कुछ विधर्मियों के शासनकाल में फिर से लुप्त हो गर्इ। किसी शासन ने श्री महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्न किया। सैकड़ों हाथ खोद लेने पर भी जब मूर्ति के चरणों का अन्त नहीं आया तो वह हार-मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ़ कर नहीं बनाया है अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है और यह समूचा पर्वत ही मानों उसका 'कनक भूधराकार' शरीर है। इसी मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुण्डी थी जिसका जल कभी बीतता ही नहीं था। रहस्य यह है कि महाराज की बार्इं ओर छाती के नीचे से एक बारीक जलधारा निरन्तर बहती रहती है जो पर्याप्त चोला चढ़ जाने पर भी बंद नहीं होती।
इस प्रकार तीनों देवों की स्थापना हुर्इ। वि.सं. 1979 में श्री महाराज ने अपना चोला बदला। उतारे हुए चोले को गाडि़यों में भर कर श्री गंगा में प्रवाहित करने हेतु बहुत से आदमी चल दिए। चोले को लेकर जब मंडावर रेलवे स्टेशन पर पहुंचे तो रेलवे अधिकारियों ने चोले का लगेज तय करने हेतु उसे तोला किंतु वह तुलने में ही नहीं आया। कभी एक मन बढ़ जाता तो कभी एक मन घट जाता। अंत में हार कर चोला वैसे ही गंगा जी को सम्मान सहित भेज दिया गया। उस समय हवन, ब्राह्राण भोजन एवं धर्म ग्रंथों का पारायण हुआ और नए चोले में एक नर्इ ज्योति उत्पन्न हुर्इ जिसने भारत के कोने-कोने में प्रकाश फैला दिया।
यहा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि मूर्ति के अतिरिक्त किसी व्यकित विशेष का कोर्इ चमत्कार नहीं है। क्या है सेवा, श्रद्धा और भकित ? स्वयं श्री महंत जी महाराज भी इस विषय में उतने ही स्पष्ट हैं जितने अन्य यात्रीगण। यहा सबसे बड़ा असर सेवा और भकित का ही है। चाहे कोर्इ कैसा भी बीमार क्यों न हो, यदि वह सच्ची श्रद्धा लेकर आया है तो श्री महाराज उसे बहुत शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान करेंगे। इसमें कोर्इ सन्देह नही।
भूत-प्रेत की बाधा, पागलपन, मृगी, लकवा, टी.बी. बाझपन या अन्य किसी भी प्रकार की कोर्इ बीमारी क्यों न हो अति शीघ्र दूर हो जाती है। यधपि लोग भौतिक विज्ञान के युग में रह रहे हैं और देवता या भूत-प्रेतादि में विश्वास नहीं करते हैं किंतु शायद श्री बालाजी के स्थान पर आकर आप अपना सारा विज्ञान भूल जायेंगे। बड़े-बड़े विज्ञानी विचारक भी यहा श्री महाराज के चरणों की शरण में आकर सब कुछ भूल जाते हैं और तन-मन से श्री चरणों के भक्त बन जाते हैं। जैसा कि कहा गया है -
'नासितक भी आसितक बन जाते हैं, मेंहदीपुर दरबार में'
यहा आने पर ही मनुष्य को विदित होता है कि भूतादि किस प्रकार मानव जाति को पीड़ा पहुंचाते हैं तथा किस प्रकार उनसे छुटकारा मिलता है। जैसे ही दुखी आदमी महाराज के दरबार में आता है उसे कुछ थोड़ा-सा प्रसाद तीनों देवताओं को चढ़ाना पड़ता है जिसमें श्री बालाजी महाराज को लडडू का, श्री प्रेतराज सरकार को चावल का और श्री कोतवाल कप्तान (भैरव) को उड़द का प्रसाद लगाया जाता है। इस प्रसाद में से दो लडडू रोगी को खिलाये जाते हैं। बाकी बचा हुआ प्रसाद जानवरों को डाल दिया जाता है। ज्यों ही मरीज उन दो लडडुओं को खाता है त्यों ही वह झूमने लगता है और स्वयं ही भूत उसके शरीर में आकर बोलने लगता है। उसके ऊपर अपने आप ही भयंकर मार पड़ने लगती है। वह भागने की कोशिश करता है किंतु अपने आप ही उसके हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी पड़ जाती है। वह अपने हाथों से ही अपने सिर में सैकड़ों जूते मारता है। हाहाकार मचाता है। कभी महाराज की आज्ञा से वह धोक के पेड़ से उल्टा लटक जाता है। कभी आग जलाकर उसमें फुक जाता है और फासी या सूली पर लटक जाता हे। यहा तक कि मारों से तंग आकर या तो वह महाराज के चरणों में बैठ जाता है अन्यथा समाप्त कर दिया जाता है। र्इमानदारी के साथ जो भूत श्री महाराज के चरणों में बैठ जाता है उन्हें यह अपना दूत बना लेते हैं। संकट कट जाने के बाद प्रत्येक रोगी को भी महाराज की ओर से एक दूत मिलता है जो कि सदा उसके पास रहता है और आगे होने वाली किसी भी बात की सूचना देता रहता है, किंतु कभी-कभी ऐसा भी देखने में आया है कि लोग दूत की बातों या बहकावे में आकर अपना नुकसान कर बैठते है। इन्हें अपने ही दूत से पथ-प्रदर्शन मागना चाहिए। जब तक उन्हें अपना स्वयं का दूत न मिले तब तक शातिपूर्वक श्री महाराज के चरणों में प्रार्थना करते रहना चाहिए। क्योंकि प्रार्थना में अपार शकित होती है। यहा कोर्इ अस्पताल या दवाखाना नहीं है, ना ही यहा कोर्इ डाक्टर, वैध या हकीम है।
यहा के तो सार्वभौम श्री बालाजी महाराज हे। बहुत से यात्री रोगी को यहा लाकर डाल देते हैं। न तो महाराज से प्रार्थना ही करते हैं और न निर्धारित नियमों का पालन ही करते हैं। पूजा और आरती के समय भी मंदिर में आने का कष्ट नहीं करते। बाहर ही चहलकदमी करते हैं। इधर-उधर की निंदा स्तुति करते हैं और जब कष्ट दूर नहीं होता तो बालाजी महाराज को दोष देते हैं और न जाने क्या-क्या ऊट-पटाग बकते फिरते हैं। बुद्धिवादियों का यहा आना व्यर्थ है। यहा तो अपने मान-सम्मान की भी चिंता छोड़ देनी चाहिए। भगवान के दरबार में भक्त का कोर्इ निजी मान-सम्मान नहीं होता। शायद आपने सुना होगा कि द्रौपदी जिस समय दुष्टों में घिर कर चिल्लार्इ थी स्वयं बैकुण्ठनाथ ने आकर उसका चीर बचाया था। गजराज को उबारा था और प्रहलाद को बचाया था। यह सब भकित का ही प्रभाव था। रामायण में गोस्वामी तुलतीदास जी ने कहा है -
'' रामहिं केवल प्रेम पियारा।। जानि लेहु जो जानन हारा ।।''
वास्तव में प्रार्थना में महान शकित निहित है। अत: सभी यात्री भाइयों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे तन,मन,धन से श्री महाराज के चरणों के अनुगामी बन जाए और कहीं भी इधर-उधर भटकने का कष्ट न करें। श्री महाराज जी उनके कष्टों को दूर कर देंगे। कहा भी है --
'' एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय । ''
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है-
''अनन्याशिचन्तयन्तो माम, ये जना: पायर्ुपासते।
तेशां नित्याभियुक्तानां, योगक्षेम वहाम्यहम ।।''
अर्थात - जो भक्त दुनिया के सारे झंझट छोड़ कर केवल मेरा ही ध्यान करते हैं उनके कल्याण की मुझे चिंता रहती है, अर्थात उनका योगक्षेम मैं ही वहन करता हू।
अत: जो भी रोगी इस स्थान पर आए उन्हें पूर्णरूपेण भगवत भक्त बन कर तपस्यामय जीवन बिताना चाहिए तभी उनके संकट शीघ्र समाप्त होंगे।
यहा प्राय: भारत के कोने-कोने से यात्रीगण आते हैं। उनके रहने की समुचित व्यवस्था है। अनेक बड़ी-बड़ी धर्मशालाए हैं। पानी के कुए और बिजली है। इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन की सभी वस्तुए उपलब्ध होने हेतु बाजार हैं।
यहा की एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि अन्य तीर्थ स्थानों की तरह न तो यहा पण्डे, पुजारी ही यात्रियों से कुछ मांगते हैं और न ही जेबकतरे एवं चोर ही हैं। अगर किसी यात्री का गलत रवैया मिलता है तो उसे तुरंत स्थान छोड़ने को विवश कर दिया जाता है।
यह स्थान प्रारंभ से ही गोस्वामी निहंग मताधिकारियों के अधिकार में रहा है। वर्तमान समय का वैभव श्री गणेशपुरी जी महाराज के सेवाकाल में बढ़ा। वास्तव में इनकी सेवा और साधना इतनी उच्चकोटि की थी कि जिसकी समानता कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकती। आप पूज्यपाद गोसार्इ श्री शिवपुरी के योग्य शिष्य हैं। वर्तमान समय में श्री गणेशपुरी जी महाराज के सर्वाधिक योग्य शिष्य श्री किशोरपुरी जी महाराज स्थान के उत्तराधिकारी नियुक्त किए गए हैं। इस समय श्री महाराज की सेवा-पूजा की संपूर्ण व्यवस्था का भार आपके ही ऊपर है। आप बहुत ही योग्य विद्वान एवं चरित्रवान हैं। आपका स्वभाव गंगाजल के समान निर्मल है, हमें पूर्ण विश्वास है कि आपके सेवाकाल में इस स्थान की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होगी।
अतिथि सत्कार, साधु और ब्राह्राणों की सेवा, अनुष्ठान और यज्ञ यहा निरंतर चलने वाले धार्मिक कृत्य हैं जिसके आधार पर इस स्थान की निरंतर प्रगति होती जा रही है। कहा भी है-
''धर्मेण हन्यते ब्याधि: ''
अर्थात धर्म के प्रभाव से सभी विपतितया एवं बीमारिया दूर होती हैं। मैं समझता हू शायद यहा की लीला का वास्तविक रहस्य यही है।
यहा आने के पश्चात यात्रियों का यह कर्तव्य है कि वे इधर-उधर सात पहाड़ी आदि के चक्कर में पड़कर भटकते न फिरें। यदि किसी प्रकार का उन्हें खतरा हो गया तो स्थान उसके लिये उत्तरदायी न होगा। अत: किसी आदमी के बहकावे में इधर-उधर भटकने का कष्ट न करें। केवल सर्वतोभवेन श्री महाराज के चरणों का ही ध्यान करें और सभी यात्रियों के साथ सहयोग का भाव रखें। र्इष्र्या-द्वेष की यहा आवश्यकता नहीं है।
मैं ऐसे स्वर्गीय आनन्द के देने वाले इस पावन स्थल के निरंतर अभ्युदय की कामना करता हुआ भगवदभक्त, सहृदय, परोपकार-रत और महान विभूति स्व0 श्री गणेशपुरी जी महाराज एवं उनके उत्तराधिकारी महान सुधारक एवं निर्मल हृदय श्री किशोरपुरी जी का हृदय से आभार प्रकट करता हू और आशा करता हू- '' जब तक सिथर है धरा, गगन, रवि, शशि, तारक, जल, अनल, पवन, तब तक इस पावन दिव्य धाम का होगा इस जग में चिर-स्मरण।।''
इस विषय का उल्लेख करने में मुझे जिन महानुभावों का योगदान मिला है उनके प्रति मैं हार्दिक धन्यवाद अर्पित करता हू।
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